
अगर ये पल जाते यही ठहर भगवती प्रसाद द्रिवेदी
अगर ये पल जाते यही ठहर
पर्वत- झरना- नदी- नहर जीवन जाता यहीं ठहर!
कभी तितलियों के संग उड़ना बुलबुल जैसा गाना,
कभी फुदकती गौरैया से घुल- मिलकर बतियाना |
लग जाते पैरों में पर ये पल जाते यहीं ठहर|
कभी पतंग लुटने को हुड़दंगी दौड़ लगाना,
आँधी में लुक-छिपकर बागियों से आम चुराना|
मगर लकड़सुँघवा का डर भरमाते क्षण, यहीं ठहर |
जान बुझकर भीग-भीग बारिश में खूब नहाना,
इधर उछालना, उधर फिसलना बस्ता ले गिर जाना|
बरसे मेघ छहर-छहर बरसाती दिन यही ठहर|
ताल तलैया में कागज की नैया का तैरना,
कुत्ते, बिल्ली, बछड़ो को ललकार खूब दौड़ना
मेढक बन करते टर्र टर्र रट्टू मनवा, यहीं ठहर!
कभी रूठना, टाफी, बिस्कुट कि खातिर रिरियाना,
माँ की मीठी डांटे सुनना और कभी गुस्साना|
लगे दूध ज्यों रखा जहर नखरीले क्षण, यहीं ठहर|
दादी माँ से जिद कर नियमित कथा कहानी सुनना,
राजा-रानी, परी लोक के अनगिनत किस्से बुनना|
खहरे-सा भागता पहर रुक जा, थम जा, यहीं ठहर
भगवती प्रसाद द्रिवेदी